अज़ाने सुब्ह तक जनाबत, हैज़ और निफ़ास की हालत में रहना

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1628. अगर जुनुब शख़्स माहे रमज़ानुल मुबारक में जानबूझ कर अज़ाने सुब्ह तक ग़ुस्ल न करे तो उसका रोज़ा बातिल है और जिस शख़्स का वजीफ़ा तयम्मुम हो और वह जानबूझ कर तयम्मुम न करे तो उसका रोज़ा भी बातिल है और माहे रमज़ान की क़ज़ा का हुक्म भी यही है।
*1629. अगर जुनुब शख़्स माहे रमज़ान के रोज़ों और उनकी क़ज़ा के अलावा उन वाजिब रोजों में जिनका वक़्त माहे रमजान की रोज़ों की तरह मुअय्यन है जानबूझ कर अज़ाने सुब्ह तक ग़ुस्ल न करे तो अज़हर यह है कि उसका रोज़ा सहीह है।
*1630. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ानुल मुबारक की किसी रात में जुनुब हो जाए तो अगर वह अमदन ग़ुस्ल न करे हत्ता कि वक़्त तंग हो जाए तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और रोज़ा रखे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसकी क़ज़ा भी बजा लाए।
*1631. अगर जुनुब शख़्स माहे रमज़ान में गुस्ल करना भूल जाए और एक दिन के बाद उसे याद आए तो ज़रूरी है कि उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे और अगर चन्द दिनों के बाद याद आए तो उतने दिनों के रोजों की क़ज़ा करे जितने दिनों के बारे में उसे यक़ीन हो कि वह जुनुब या मसलन अगर उसे यह इल्म न हो कि तीन दिन जुनुब रहा था या चार दिन तो ज़रूरी है कि तीन दिनों के रोजों की क़ज़ा करे।
*1632. अगर एक ऐसा शख़्स अपने आप को जुनुब कर ले जिसके पास माहे रमज़ान की रात में ग़ुस्ल और तयम्मुम में से किसी के लिये भी वक़्त न हो तो उसका रोज़ा बातिल है और उस पर क़ज़ा और कफ़्फ़ार दोनों वाजिब हैं।
*1633. अगर रोज़ादार यह जानने के लिये जुस्तजू करे कि उसके पास वक़्त है कि नहीं और गुमान करे कि उसके पास ग़ुस्ल के लिये वक़्त है और अपने आप को जुनुब कर ले और बाद में उसे पता चले कि वक़्त तंग था और तयम्मुम कर के रोज़ा रखे तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे।
*1634. जो शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात को जुनुब हो और जानता हो कि अगर सोयेगा तो सुब्ह तक बेदार न होगा, उसे बग़ैर ग़ुस्ल किये नहीं सोना चाहिये और अगर वह ग़ुस्ल करने से पहले अपनी मरज़ी से सो जाए और सुब्ह तक बेदार न हो तो उसका रोज़ा बातिल है और क़ज़ा और कफ़्फ़ारा दोनों उस पर वाजिब हैं।
*1635. जब जुनुब माहे रमज़ान की रात में सो कर जाग उठे तो एहतियते वाजिब यह है कि अगर वह बेदार होने के बारे में मुत्मइन हो तो ग़ुस्ल से पहले न सोए अगरचे इस बात का एहतिमाल हो कि अगर दोबारा सो गया तो सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा।
*1636. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और यक़ीन रखता हो कि अगर सो गया तो सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और उसका मुसम्मम इरादा हो कि बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और इस इरादे के साथ सो जाए और अज़ान तक सोता रहे तो उसका रोज़ा सहीह है। और अगर कोई शख़्स सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार होने के बारे में मुत्मइन हो तो उस के लिए भी यही हुक्म है।
*1637. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और उसे इल्म हो या एहतिमाल हो कि अगर सो गया तो सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह इस बात से ग़ाफ़िल हो कि बेदार होने के बाद उस पर ग़ुस्ल करना ज़रूरी है तो उस सूरत में जबकि वह सो जाए और सुब्ह की अज़ान तक सोया रहे एहतियात की बिना पर उस पर क़ज़ा वाजिब हो जाती है। 1638. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और उसे यक़ीन हो या एहतिमाल इस बात का हो कि अगर वह सो गया तो सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह बेदार होने के बाद ग़ुस्ल न करना चाहता हो तो उस सूरत में जब कि वह सो जाए और बेदार न हो उसका रोज़ा बातिल है और क़ज़ा और कफ़्फ़ारा उस के लिये लाज़िम हैं। और इसी तरह अगर बेदार होने के बाद उसे तरद्दुद हो कि ग़ुस्ल करे या न करे तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर यही हुक्म है। 1639. अगर जुनुब शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में सो कर जाग उठे और उसे यक़ीन हो या इस बात का एहतिमाल हो कि अगर दोबारा सो गया तो सुब्ह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह मुसम्मम इरादा भी रखता हो कि बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और दोबारा सो जाए और अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है कि बतौरे सज़ा उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे। और अगर दूसरी नीन्द से बेदार हो जाये और तीसरी दफ़्आ सो जाए और सुब्ह की अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर कफ़्फ़ारा भी दे।
*1640. जब इंसान को नीन्द में एहतिलाम हो जाए तो पहली, दूसरी और तीसरी नीन्द से मुराद वह नीन्द है कि इंसान (एहतिलाम से) जागने के बाद सोए लेकिन वह नीन्द जिसमें एहतिलाम हुआ पहली नीन्द शुमार नहीं होती।
*1641. अगर किसी रोज़ादार को दिन में एहतिलाम हो जाए तो उस पर फ़ौरन ग़ुस्ल करना वाजिब नहीं।
*1642. अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान में सुब्ह की अज़ान के बाद जागे और यह देखे कि उसे एहतिलाम हो गया है तो अगरचे उसे मालूम हो कि यह एहतिलाम अज़ान से पहले हुआ है उसका रोज़ा सहीह है।
*1643. जो शख़्स रमज़ानुल मुबारक का क़ज़ा रोज़ा रखना चाहता हो और वह सुब्ह की अज़ान तक जुनुब रहे तो अगर उसका इस हालत में रहना अमदन हो तो उस दिन का रोज़ा नहीं रख सकता और अमदन न हो तो रोज़ा रख सकता है अगरचे एहतियात यह है कि रोज़ा न रखे।
*1644. जो शख़्स रमज़ानुल मुबारक के क़ज़ा रोज़े रखना चाहता हो अगर वह सुब्ह की अज़ान के बाद बेदार हो और देखे कि उसे एहतिलाम हो गया है और जानता हो कि यह एहतिलाम उसे सुब्ह की अज़ान से पहले हुआ है तो अक़्वा की बिना पर उस दिन माहे रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा की नीयत से रोज़ा रख सकता है।
*1645. अगर माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़ों के अलावा ऐसे वाजिब रोज़ों में कि जिनका वक़्त मुअय्यन नहीं है मसलन कफ़्फ़ारे के रोज़े में कोई शख़्स अमदन अज़ाने सुब्ह तक जुनुब रहे तो अज़हर यह है कि उसका रोज़ा सहीह है लेकिन बेहतर है कि उस दिन के अलावा किसी दूसरे दिन रोज़ा रखे।
*1646. अगर रमज़ान के रोजों में औरत सुब्ह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाए और अमदन ग़ुस्ल न करे या वक़्त तंग होने की सूरत में – अगरचे उसके इख़्तियार में हो और रमज़ान का रोज़ा हो – तयम्मुम न करे तो उसका रोज़ा बातिल है और एहतियात की बिना पर माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़े का भी यही हुक्म है (यानी उसका रोज़ा बातिल है) और इन दो के अलावा दीगर सूरतों में बातिल नहीं अगरचे अहवत यह है कि ग़ुस्ल करे। माहे रमज़ान में जिस औरत की शरई ज़िम्मेदारी हैज़ या निफ़ास के ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम हो और इसी तरह एहतियात की बिना पर रमज़ान की क़ज़ा में अगर जानबूझ कर अज़ाने सुब्ह से पहले तयम्मुम न करे तो उसका रोज़ा बातिल है।
*1647. अगर कोई औरत माहे रमज़ान में सुब्ह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाए और ग़ुस्ल के लिये वक़्त न हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और सुब्ह की अज़ान तक बेदार रहना ज़रूरी नहीं है। जिस जुनुब शख़्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो उसके लिये भी यही हुक्म है। 1648. अगर कोई औरत माहे रमज़ानुल मुबारक में सुब्ह की अज़ान के नज़्दीक हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाए और ग़ुस्ल या तयम्मुम किसी के लिये वक़्त बाक़ी न हो तो उसका रोज़ा सहीह है।
*1649. अगर कोई औरत सुब्ह की अज़ान के बाद हैज़ या निफ़ास के ख़ून से पाक हो जाए या दिन में उसे हैज़ या निफ़ास का खून आ जाए तो अगरचे यह खून मग़्रिब के करीब ही क्यों न आए उसका रोज़ा बातिल है।
*1650. अगर औरत हैज़ का निफ़ास का ग़ुस्ल करना भूल जाए और उसे एक दिन या कई दिन के बाद याद आए तो जो रोज़े उसने रखे हों सहीह हैं।
*1651. अगर औरत माहे रमज़ानुल मुबारक में सुब्ह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाए और ग़ुस्ल करने में कोताही करे और सुब्ह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और वक़्त तंग होने की सूरत में तयम्मुम भी न करे तो उसका रोज़ा बातिल है लेकिन अगर कोताही न करे मसलन मुंतज़िर हो कि ज़नाना हम्माम मुयस्सर आ जाए ख़्वाह उस मुद्दत में तीन दफ़्आ सोए और सुब्ह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और तयम्मुम करने में भी कोताही न करे तो उसका रोज़ा सहीह है।
*1652. जो औरत इस्तिहाज़ा ए कसीरा की हालत में हो अगर वह अपने ग़ुस्लों को उस तफ़्सील के साथ न बजा लाए जिसका ज़िक्र मस्अला 402 में किया गया है तो उसका रोज़ा सहीह है। ऐसे ही इस्तिहाज़ा ए मुतवस्सिता में अगरचे औरत ग़ुस्ल न भी करे, उसका रोज़ा सहीह है।
*1653. जिस शख़्स ने मैयित को मस किया हो यानी अपने बदन का कोई हिस्सा मैयित के बदन से छुआ हो वह गुस्ले मसे मैयित के बग़ैर रोज़ा रख सकता है अगर रोज़े की हालत में भी मैयित को मस करे तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता।